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येना॑ समु॒द्रमसृ॑जो म॒हीर॒पस्तदि॑न्द्र॒ वृष्णि॑ ते॒ शव॑: । स॒द्यः सो अ॑स्य महि॒मा न सं॒नशे॒ यं क्षो॒णीर॑नुचक्र॒दे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yenā samudram asṛjo mahīr apas tad indra vṛṣṇi te śavaḥ | sadyaḥ so asya mahimā na saṁnaśe yaṁ kṣoṇīr anucakrade ||

पद पाठ

येन॑ । स॒मु॒द्रम् । असृ॑जः । म॒हीः । अ॒पः । तत् । इ॒न्द्र॒ । वृष्णि॑ । ते॒ । शवः॑ । स॒द्यः । सः । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । न । स॒म्ऽनशे॑ । यम् । क्षो॒णीः । अ॒नु॒ऽच॒क्र॒दे ॥ ८.३.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:3» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

पुनः महिमा का गान दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र ! हे परमात्मन् ! (येन) जिस निजबल से तूने (समुद्रम्) समुद्र के लिये (महिः) बहुत (अपः) जल (असृजः) बनाया है (तत्+ते+शवः) वह तेरा बल (वृष्णि) सर्वत्र अभीष्ट फलप्रद होवे (अस्य) हे इन्द्र ! तेरी (सः+महिमा) वह महिमा (सद्यः) कदापि (न+संनशे) विनष्ट नहीं होती। (यम्+अनु) जिस महिमा के पीछे (क्षोणीः) पृथिवी आदि सकल लोक (चक्रदे) चलते हैं, वह आपकी महिमा कदापि नष्ट नहीं हो सकती ॥१०॥
भावार्थभाषाः - आद्य सृष्टि में ये समुद्रस्थ जल कहाँ से आये। जब पृथिवी भी अग्नि से जाज्वल्यमान थी, तब जल का आगमन कहाँ से हुआ इसको पुनः-पुनः विचारो। अहो ! इसी की सर्व महिमा है, हे मनुष्यो ! उस एक ही की उपासना करो ॥१०॥
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आर्यमुनि

अब अन्य प्रकार से कर्मयोगी की महिमा वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (येन) जिस बल से (महो, अपः) महा जलों को (समुद्रं, असृजः) समुद्र के प्रति पहुँचाते हैं (तत्, ते) ऐसा आपका (वृष्णि, शवः) व्यापक बल है (सः, अस्य, महिमा) वह इसकी महिमा (सद्यः) शीघ्र (न, संनशे) नहीं मिल सकती (यं) जिस महिमा का (क्षोणीः) पृथिवी (अनुचक्रदे) अनुसरण करती है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में कर्मयोगी की महिमा वर्णन की गई है कि वह कृत्रिम नदियों द्वारा मरु देशों में भी जलों को पहुँचाकर पृथिवी को उपजाऊ बनाकर प्रजा को सुख पहुँचाता और धर्मपथयुक्त तथा अभ्युदयकारक होने के कारण कर्मयोगी के ही आचरणों का पृथिवी भर के सब मनुष्य अनुकरण करते हैं ॥१०॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनर्महिमैव गीयते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! येन=स्वकीयेन बलेन। त्वम्। समुद्रं प्रति। महीः=महत्यः। अपः=जलानि। असृजः=सृष्टवानसि। तत्ते। शवः=बलम्। वृष्णि=अभीष्टफलवर्षकं सर्वत्र भवतु। अस्य तव। स महिमा। सद्यः न संनशे=न कदापि सम्यङ् नश्यति विनश्यति। यं महिमानम्। क्षोणीः=पृथिवी। अनुचक्रदे=अनुगच्छति। क्रदिरत्र गत्यर्थः। यदधीनाः पृथिव्यादयः सर्वे लोकाः सन्ति। यो हि समुद्रं जलैः पूरयति स परमात्मैव स्तुत्यो नान्य इत्यनया शिक्षते ॥१०॥
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आर्यमुनि

अथ प्रकारान्तरेण कर्मयोगिमहिमा वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे कर्मयोगिन् ! (येन) बलेन (महीः, अपः) महान्ति जलानि (समुद्रं, असृजः) समुद्रं प्रति गमयसि (तत्) तादृशं (वृष्णि) व्यापकं (ते) तव (शवः) बलमस्ति (सः, अस्य, महिमा) सोऽस्य प्रतापः (सद्यः) झटिति (न, संनशे) न लब्धुं शक्यः (यं) यं महिमानं (क्षोणीः) पृथिवी (अनुचक्रदे) अनुसरति ॥१०॥